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राम मानसिक, आध्यात्मिक आनन्द और प्रसन्नता के स्रोत है : श्री श्री आनन्दमूर्ति

एसबीएन आध्यात्मिक डेस्क। एक कहानी है कि किसी ने हनुमान से कहा, ‘हनुमान, तुम एक भक्त हो और जानते हो कि मूलतः नारायण और राम में कोई अन्तर नहीं है। तब तुम सर्वदा राम का ही नाम लेते हो, कभी नारायण का नाम नहीं लेते हो जबकि दोनों मूलतः एक ही हैं।’

नारायण और राम दोनों वास्तव में एक ही हैं, मात्र नामों का अन्तर है। ‘नारायण’ संस्कृत का शब्द है। राम का अर्थ क्या है? एक अर्थ है ‘रमन्ते योगिनः यस्मिन् रामः।’ अर्थात् ‘राम’ ही मात्र एक ऐसे विषय है जो योगियों के आध्यात्मिक मानसिक आभोग हैं, मानसाध्यात्मिक भोजन है, मानसाध्यात्मिक आनन्द और प्रसन्नता के स्रोत हैं। राम का दूसरा अर्थ है, ‘राति महीधरः रामः।’ ‘रति’ का प्रथम अक्षर ‘र’ है। और ‘महीधर’ का प्रथम अथर ‘म’, राम। ‘रति महीधरः’, सम्पूर्ण विश्व की सर्वश्रेष्ठ ज्योतित सत्ता है जिनसे सभी ज्योतित सत्तायें ज्योति प्राप्त करती हैं। चन्द्रमा पृथ्वी से ज्योति प्राप्त करती है, पृथ्वी सूर्य से ज्योति प्राप्त करती है और सूर्य परम पुरुष से ज्योति प्राप्त करते हैं। वे ही वह सर्वोच्च सत्ता है जो दूसरों को प्रकाशित करते हैं। वह सर्वोच्च प्रकाशमान सत्ता कौन हैं? परम पुरुष ही सर्वोच्च ज्योतित सत्ता हैं। ‘राति महीधरः’ का तात्पर्य है मात्र परम पुरुष, कोई अलग सत्ता नहीं, कोई अन्य सत्ता नहीं। ‘राम’ का तीसरा अर्थ है, ‘रावणस्य मरणं रामः’। ‘रावण’ शब्द का प्रथम अक्षर है ‘रा’ और ‘मरणं’ का प्रथम अक्षर है ‘म’। रा$म=राम अर्थात् वह सत्ता जिसके चाप से रावण मर जाता है। अस्तु, ‘रावणस्य मरणं’, रावण की मृत्यु कहाँ होती है, कब होती है? जब कोई राम की शरण में जाता है तो रावण मर जाता है। अतः ‘रावणस्य मरणं राम’। जो परम पुरुष, राम, चिति सत्ता की शरण में चला जाता है वह रावण रूपी राक्षस का नाश कर सकता है। ‘रावणस्य मरणं’ का तात्पर्य सर्वोच्च चितिसत्ता। अतः ‘राम’ और ‘नारायण’ में कोई अन्तर नहीं है। तुम्हें अधिकाधिक सच्चाई के साथ अपनी सम्पूर्ण मानसिक वृत्तियों को समाहृत करते हुए विन्दुभूत रूप में अपने लक्ष्य परम पुरुष की ओर चलना चाहिए। अपितु, सभी मानसिक वृत्तियों को सूई की नोक (सूच्यग्र) के समान एकाग्र करते हुए अपने ‘मैं’ भाव को मात्र उस एक तत्व की ओर, बिना किसी अन्य रूप, नाम, वर्ण अथवा विषय पर ध्यान दिये तुम्हें परिचालित करना चाहिए। इसीलिए हनुमान कहते हैं, ‘श्रीनाथे जानकी नाथे।’ ‘श्री’ शब्द का योगारूढ़ार्थ है वह सत्ता जो रजोगुणी शक्ति की अधिष्ठान है, जो शक्ति से पूर्ण है। श्रीनाथ, श्री के मालिक ‘नारायण’ हैं और जानकी अर्थात् सीता के मालिक (पति) हैं राम। सीता में ‘सी’ का अर्थ है खेतों को जोतना (कल्चर), और उसका ‘विशेषण’ वाची शब्द है ‘सीता’ अर्थात् पूर्ण संस्कारित। यह संस्कार आता कहाँ से है? कौन इस संस्कार (संस्कृति) का मालिक है? इस संस्कार (संस्कृति) का कौन प्रेरणास्रोत अथवा सहायक है। परम पुरुष, श्रीनाथ अथवा जानकीनाथ का तात्पर्य है उन्हीं परम पुरुष से। अतएव श्रीनाथ और जानकीनाथ में कोई अन्तर नहीं है। हनुमान कहते हैं, ‘मैं’ इसे जानता हूँ कि आध्यात्मिकता, अध्यात्मवाद और आध्यात्मिक साधना विज्ञान की भी दृष्टि से श्रीनाथ और जानकीनाथ में कोई अन्तर नहीं है। ‘तथापि मम सर्वस्वः रामः कमललोचनः।’

अस्तु, मन की सम्पूर्ण वृत्तियों को एक ही तत्त्व की ओर परिचालित करो, एक नाम का उपयोग करो, मात्र अपने इष्ट मन्त्र का उपयोग करो और किसी अन्य मन्त्र का उपयोग मत करो। हनुमान इसीलिए कहते हैं, ‘मैं मात्र राम का नाम जपता हूँ। कभी भी नारायण का नाम नहीं जपता। मैं नहीं जानता कि और नारायण हैं कौन?’ प्रत्येक साधक को जानना चाहिए कि सम्पूर्ण विश्व में मात्र एक ही मन्त्र है और वह है उसका इष्ट मन्त्र। वह कोई और मन्त्र जानता ही नहीं है।

प्रस्तुति: दिव्यचेतनानन्द अवधूत

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